जिधर भी देखता हूँ तन्हाई नज़र आती है
आपके इंतज़ार में हर शाम गुज़र जाती है
मैं कैसे करूँ गिला दिल के ज़ख्मों से हुज़ूर
आंसू छलकते हैं मेरी सूरत निखर जाती है
तोड़ दिए हैं मैंने अपने घर के सारे आईने
मेरी रूह मेरा ही चेहरा देख के डर जाती है
रो के हलके हो लेते हैं ज़रा से तेरी याद में
ज़रा सी ना-मुरादों की तबियात सुधर जाती है
असर करती यकीनन गर छू जाती उनके दिल को
अफ़सोस के आह मेरी फिजाओं में बिखर जाती है
जब भी जिकर आता है तेरे नाम का
शाम की पी हुई सर-ऐ-शाम ही उतर जाती है
कभी आ के मेरे ज़ख्मों से मुकाबला तो कर
ऐ खुशी तू मुहँ छुपा के किधर जाती है
तुझे इन्ही काँटों पे चल के जाना है
उनके घर को बस यही एक रहगुज़र जाती है .......
1 comment:
तोड़ दिए हैं मैंने अपने घर के सारे आईने
मेरी रूह मेरा ही चेहरा देख के डर जाती है
अच्छा शेर है. बधाई.
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